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Holi त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत हिंदु धर्म का एक अविभाज्य अंग हैं। इनको मनाने के पीछे कुछ विशेष नैसर्गिक, सामाजिक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक कारण होते हैं तथा इन्हें उचित ढंग से मनाने से समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में अनेक लाभ होते हैं । इससे पूरे समाज की आध्यात्मिक उन्नति होती है । इसीलिए त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत मनानेका शास्त्राधार समझ लेना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । इस वर्ष होली 9 मार्च, Holi 2020 को है । आइए समझ लेते हैं होली मनाने का शास्त्रीय आधार!
होली भी संक्रांतिके समान एक देवी हैं । षड्विकारों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता होलिका देवी में है । विकारों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त होने के लिए होलिका देवी से प्रार्थना की जाती है । इसलिए होली को उत्सव के रूपमें मनाते हैं । साथ ही, इस दिन होलिका दहन हुआ था। भक्त प्रह्लाद को हिरण्यकश्यपु ने मारने के अनेक प्रयास किए थे। अंत में भक्त प्रह्लाद की बुआ, होलिका की गोद में उन्हें बिठाकर अग्नि में जलाने का प्रयास किया। तब भक्त प्रह्लाद अपनी भक्ति के कारण बच गए, परंतु होलिका का दहन हो गया। इसी को होली के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
Holi होली के पर्व पर अग्निदेवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का कारण!
होली – अग्निदेवता की उपासना का ही एक अंग है । अग्निदेवता की उपासना से व्यक्ति में तेजतत्त्व की मात्रा बढने में सहायता मिलती है । होली के दिन अग्निदेवता का तत्त्व 2 प्रतिशत कार्यरत रहता है । इस दिन अग्निदेवता की पूजा करने से व्यक्ति को तेजतत्त्व का लाभ होता है । इससे व्यक्ति में रज-तम की मात्रा घटती है । होली के दिन किए जानेवाले यज्ञों के कारण प्रकृति मानव के लिए अनुकूल हो जाती है । इससे समय पर एवं अच्छी वर्षा होने के कारण सृष्टि संपन्न बनती है । इसीलिए होली के दिन अग्निदेवताकी पूजा कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । घरों में पूजा की जाती है, जो कि सुबह के समय करते हैं । सार्वजनिक रूपसे मनाई जानेवाली होली रातमें मनाई जाती है ।
होली मनाने का कारण
पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश इन पांच तत्त्वों की सहायता से देवता के तत्त्व को पृथ्वी पर प्रकट करने के लिए यज्ञ ही एक माध्यम है । जब पृथ्वी पर एक भी स्पंदन नहीं था, उस समय के प्रथम त्रेतायुग में पंचतत्त्वों में विष्णुतत्त्व प्रकट होने का समय आया । तब परमेश्वर द्वारा एक साथ सात ऋषि-मुनियों को स्वप्नदृष्टांत में यज्ञ के बारे में ज्ञान हुआ । उन्होंने यज्ञ की सिद्धता (तैयारियां) आरंभ कीं । नारदमुनि के मार्गदर्शनानुसार यज्ञ आरंभ हुआ । मंत्रघोष के साथ सबने विष्णुतत्त्व का आवाहन किया । यज्ञ की ज्वालाओं के साथ यज्ञकुंड में विष्णुतत्त्व प्रकट होने लगा । इससे पृथ्वी पर विद्यमान अनिष्ट शक्तियों को कष्ट होने लगा । उनमें भगदड मच गई । उन्हें अपने कष्ट का कारण समझ में नहीं आ रहा था । धीरे-धीरे श्रीविष्णु पूर्ण रूप से प्रकट हुए । ऋषि-मुनियों के साथ वहां उपस्थित सभी भक्तों को श्रीविष्णुजी के दर्शन हुए । उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी । इस प्रकार त्रेतायुग के प्रथम यज्ञ के स्मरण में होली मनाई जाती है । होली के संदर्भमें शास्त्रों एवं पुराणों में अनेक कथाएं प्रचलित हैं ।
भविष्यपुराण की कथा
भविष्यपुराण में एक कथा है । प्राचीन काल में ढुंढा अथवा ढौंढा नामक राक्षसी एक गांव में घुसकर बालकों को कष्ट देती थी । वह रोग एवं व्याधि निर्माण करती थी । उसे गांव से निकालने हेतु लोगों ने बहुत प्रयत्न किए; परंतु वह जाती ही नहीं थी । अंत में लोगों ने अपशब्द बोलकर, श्राप देकर तथा सर्वत्र अग्नि जलाकर उसे डराकर भगा दिया । वह भयभीत होकर गांव से भाग गई । इस प्रकार अनेक कथाओं के अनुसार विभिन्न कारणों से इस उत्सव को देश-विदेश में विविध प्रकार से मनाया जाता है । प्रदेशानुसार फाल्गुनी पूर्णिमासे पंचमी तक पांच-छः दिनों में, तो कहीं दो दिन, कहीं पांचों दिन तक यह त्यौहार मनाया जाता है ।
होली का महत्तव
होली का संबंध मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन से है, साथ ही, नैसर्गिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक कारणों से भी है । यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है । दुष्प्रवृत्ति एवं अमंगल विचारों का नाश कर, सद्प्रवृत्ति का मार्ग दिखानेवाला यह उत्सव है। अनिष्ट शक्तियों को नष्ट कर ईश्वरीय चैतन्य प्राप्त करने का यह दिन है । आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने हेतु बल प्राप्त करने का यह अवसर है । वसंत ऋतु के आगमन हेतु मनाया जानेवाला यह उत्सव है । अग्निदेवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेका यह त्यौहार है ।
शास्त्रानुसार होली मनाने की पद्धति
कई स्थानों पर होली का उत्सव मनाने की सिद्धता महीने भर पहले से ही आरंभ हो जाती है । इसमें बच्चे घर-घर जाकर लकडियां इकट्ठी करते हैं । पूर्णमासी को होली की पूजासे पूर्व उन लकडियों की विशिष्ट पद्धति से रचना की जाती है । तत्पश्चात उसकी पूजा की जाती है । पूजा करनेके उपरांत उसमें अग्नि प्रदीप्त (प्रज्वलित) की जाती है । होली प्रज्वलित करने की पद्धति समझने के लिए हम इसे दो भागों में विभाजित करते हैं,
१. होलीकी रचना, तथा
२. होलीका पूजन एवं प्रदीपन(प्रज्वलन)
होली की रचना की पद्धति
होली की रचना के लिए आवश्यक सामग्री-
अरंड अर्थात कैस्टरका पेड, माड अर्थात कोकोनट ट्री, अथवा सुपारी के पेड का तना अथवा गन्ना । ध्यान रहें, गन्ना पूरा हो । उसके टुकडे न करें । मात्र पेड का तना पांच अथवा छः फुट लंबाई का हो । गाय के गोबर के उपले अर्थात ड्राइड काऊ डंग, अन्य लकडियां ।
होली की रचना की प्रत्यक्ष कृति
सामान्यत: ग्रामदेवता के देवालय के सामने होली जलाएं । यदि संभव न हो, तो सुविधाजनक स्थान चुनें । जिस स्थान पर होली जलानी हो, उस स्थान पर सूर्यास्त के पूर्व झाडू लगाकर स्वच्छता करें । बाद में उस स्थान पर गोबर मिश्रित पानी छिडकें । अरंडी का पेड, माड अथवा सुपारीके पेड का तना अथवा गन्ना उपलब्धता के अनुसार खडा करें । उसके उपरांत चारों ओर उपलों एवं लकड़ियों की शंकुसमान रचना करें । उस स्थान पर रंगोली बनाएं ।
होली की रचना करते समय उसका आकार शंकुसमान होने का शास्त्राधार
होली का शंकुसमान आकार इच्छाशक्ति का प्रतीक है ।
होलीकी रचनामें शंकुसमान आकारमें घनीभूत होनेवाला अग्निस्वरूपी तेजतत्त्व भूमंडलपर आच्छादित होता है । इससे भूमिको लाभ मिलनेमें सहायता होती है । साथ ही पाताल से भूगर्भ की दिशा में प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदनों से भूमि की रक्षा होती है ।
होलीकी इस रचनामें घनीभूत तेजके अधिष्ठानके कारण भूमंडलमें विद्यमान स्थानदेवता, वास्तुदेवता एवं ग्रामदेवता जैसे देवताओं के तत्त्व जागृत होते हैं । इससे भूमंडल में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों के उच्चाटन का कार्य सहजता से साध्य होता है ।
शंकु के आकार में घनीभूत अग्निरूपी तेज के संपर्क में आनेवाले व्यक्ति की मनःशक्ति जागृत होने में सहायता होती है । इससे उनकी कनिष्ठ स्वरूप की मनोकामना पूर्ण होती है एवं व्यक्ति को इच्छित फलप्राप्ति होती है ।
होली में अर्पण करने के लिए मीठी रोटी बनाने का शास्त्रीय कारण
होलिका देवी को निवेदित करने के लिए एवं होली में अर्पण करने के लिए उबाली हुई चने की दाल एवं गुड का मिश्रण, यह भरकर मीठी रोटी बनाते हैं । इस मीठी रोटी का नैवेद्य होली प्रज्वलित करने के उपरांत उसमें समर्पित किया जाता है । होली में अर्पण करने के लिए नैवेद्य बनाने में प्रयुक्त घटकों में तेजोमय तरंगों को अतिशीघ्रतासे आकृष्ट, ग्रहण एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है । इन घटकों द्वारा प्रक्षेपित सूक्ष्म वायु से नैवेद्य निवेदित करनेवाले व्यक्ति की देहमें पंचप्राण जागृत होते हैं । उस नैवेद्य को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने से व्यक्ति में तेजोमय तरंगों का संक्रमण होता है तथा उसकी सूर्यनाडी कार्यरत होने में सहायता मिलती है । सूर्यनाडी कार्यरत होने से व्यक्ति को कार्य करने के लिए बल प्राप्त होता है ।
- कृतिका खत्री, सनातन संस्था, दिल्ली